Tuesday, December 16, 2008

कुमाऊ की आवाज -गोपाल बाबु गोस्वामी

उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के छोटे से गांव चांदीकोट में जन्मे गोपाल बाबू गोस्वामी का परिवार बेहद गरीब था. बचपन से ही गाने के शौकीन गोपाल बाबू के घरवालों को यह पसंद नहीं था क्योंकि रोटी ज़्यादा बड़ा मसला था. घरेलू नौकर के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद गोपाल बाबू ने ट्रक ड्राइवरी की. उसके बाद कई तरह के धंधे करने के बाद उन्हें जादू का तमाशा दिखाने का काम रास आ गया. पहाड़ के दूरस्थ गांवों में लगने वाले कौतिक - मेलों में इस तरह के जादू तमाशे दिखाते वक्त गोपाल बाबू गीत गाकर ग्राहकों को रिझाया करते थे.एक बार अल्मोड़ा के विख्यात नन्दादेवी मेले में इसी तरह का करतब दिखा रहे गोपाल बाबू पर कुमाऊंनी संगीत के पारखी स्व. ब्रजेन्द्रलाल साह की नज़र पड़ी और उन्होंने नैनीताल में रहने वाले अपने शिष्य (अब प्रख्यात लोकगायक) गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' के पास भेजा कि इस लड़के को 'देख लें'. गिर्दा बताते हैं कि ऊंची पिच में गाने वाले गोपाल बाबू की आवाज़ की मिठास उन्हें पसंद आई और उनकी संस्तुति पर सांग एंड ड्रामा डिवीज़न की नैनीताल शाखा में बड़े पद पर कार्यरत ब्रजेन्द्रलाल साह जी ने गोपाल बाबू को बतौर कलाकार सरकारी नौकरी पर रख लिया.यहां से शुरू हुआ गोपाल बाबू की प्रसिद्धि का सफ़र जो ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी आकस्मिक मौत तक उन्हें कुमाऊं का लोकप्रिय गायक बना गया था. जनवरी के महीने में हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले में निकलने वाले जुलूस में हज़ारों की भीड़ उनके पीछे पीछे उनके सुर में सुर मिलाती थी. "कैले बाजै मुरूली", "घुरु घुरु उज्याव है गो", "घुघूती ना बासा" और "रुपसा रमोती" जैसे गाने आज भी खूब चाव से सुने जाते हैं और कुछेक के तो अब रीमिक्स तक निकलने लगे हैं.

Thursday, December 11, 2008

श्रद्धांजलि---शिवानी "गौरा पन्त" - हिन्दी साहित्य का एक चमकता सितारा



शिवानी "गौरा पन्त" - हिन्दी साहित्य का एक चमकता सितारा
कुमाऊँनी समाज पर लिखने वाले रचनाकारों में शिवानी अग्रणी लेखिका हैं. गौरा पंत ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ। आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे। माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को उनसे ही मिला। शिवानी जी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे, परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहन मैत्री थी। वे प्रायः अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अतः अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ शिवानी जी का बचपन भी दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता, किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद् पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में। पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के बीच अधिक समय बिताया। उनके लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उनकी जड़ें, इसी विविधतापूर्ण जीवन में थीं। शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी ही सलाह, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, को शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। 1982 में शिवानी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66 गुलस्ताँ कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। 21 मार्च, 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ! शिवानी जी के लिखे गये कई उपन्यास, कहानी संग्रह, संस्मरण व यात्रा वर्णन हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं. उनकी रचनाओं में कुमाऊनी, बांग्ला तथा गुजराती सहित अन्य भाषाओं का भी पुट मिलता है. मुख्यतः महिलाओं पर केन्द्रित उनकी कहानियां बहुत अधिक पसंद की जाती हैं {प्रस्तुतकर्ता --सुनील सुयाल }

Saturday, December 6, 2008

भ्रमित है जनता

देश मै आज जिस तरह का माहोल है उससे सामान्य जन अपनी भूमिका को लेकर आशंकित है,युवा तो बुरी तरह से भ्रमित है !कई युवक ऐसे भी है, जिनको कहते सुना है "भाड़ मै जाय देश ,देश ने हमे दिया क्या है "देश भक्तो की श्रंखला वाले इस देश मै ये कपूत कहा से आ गये ? तो इनके जनक है- देश का स्वार्थी व अक्षम नेतृत्व !देशवासियों को दिशा देने वाले माध्यमो का आपसी प्रति स्पर्धा मै खुद ही दिशा भटक जाना है !देश के नेतृत्व करने वालो की कोई स्पष्ट नीति नहीं है ,और विलासिता का सुख भोगते -भोगते ,आपत्ति के समय भी वे, विलासिता के मद में चूर ऐसे ब्यान देते है जो जनमानस के आहत मन को कचोट जाते है फिर रही सही कसर मीडिया पूरी कर देता ,उस आहत और कचोट गये मन पर मिर्च,और नमक छिड़क कर (उस ब्यान को बार -बार दिखा कर ) !क्या लोकतंत्र के इस चोथे स्तम्भ के कर्तव्य की इतिश्री मात्र इसमें है की वो देश के सभी लूट -मार ,बलात्कार ,खून- खराबा,हत्या ,बम्ब धमाके ही दिन भर दिखाते रहे !क्या देश मै कही कोई सकारात्मक कार्य नहीं हो रहा जो ,देश के युवाओ के सामने "आदर्श ' बने, और उनकी भ्रमित सोच को परिवर्तित कर सके !